atul bhai kee shayree

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद जिला साहित्य और व्यवसाय दोनों के लिए काफी मशहूर है, इसी जिले  में चंदौसी छोटा सा कस्बा है . १९७५ के आस पास मेरा पोस्टिंग हुआ था , उसी दौरान मेरी मुलाकात एक सजीले और सलीकेदार नौजवान से हुई  नाम था अतुल अग्रवाल. शाम को चंदौसी क्लब की सीढ़ियों पर बैठे वैठे अतुल शेरो शायरी का सिलसिला जब शुरू करते तो  थमता ही नहीं था , नामचीन शायरों  से लेकर अपनी कविता, ग़ज़ल शब्दों में डूब कर सुनाते तो लगता कि वक्त थम सा गया है. परिवार में दूर दूर तक किसी का साहित्य से कोई वास्ता नहीं लेकिन लगता था कि अतुल की धडकनों में एक कवि का कब्जा है. पढाई हिंदी माध्यम से हुए थी उर्दू से दूर दूर तक वास्ता न था . लेकिन इलाके की गंगा जमुनी तहजीब, सो लोगों से बोलते चलते उर्दू के लब्जों को बीनना शुरू कर दिया , १९७१ में लिखने का सिलसिला चंद शेरों से किया . उन दिनों कवि सम्मलेन  , मुशायरे  और ख्यालों  की महफिलें  जहाँ  भी  होतीं अतुल बिला  नागा  पहुँच  जाते  और काव्य की गहराई में गोते लगाने लगते. इस तरह से कसबे के  मध्यमवर्गीय परिवार का एक नौजवान शायर बनने लगा और उसे खुदा की आमद होने लगी.

एक ओर साहित्य में कुछ कर गुजरने की चाहत तो दूसरी तरफ पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बनने की ललक दोनों साथ साथ चल रहीं थीं. कालिज की मैगजीन हो या फिर काव्य गोष्ठी अतुल काव्य रचना का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते  थे. शुरुआती दौर में डाक्टर बनने का सपना भी था, बी. एससी. बायलोजी से किया, पर नियति को कुछ और  ही मंजूर था , इकनामिक्स में एम. ए. कर लिया, प्रोफेशनल पढाई के लिए दिल्ली पहुँच गए, कम्पनी सेक्रेटरी और क़ानून  की  पढाई की . प्रोफेशनल  पढाई करते     हुए भी अवचेतन  में बसा    शायर जिन्दा रहा . कभी नोट बुक के पीछे तो कभी कागज़ के छोटे छोटे टुकड़ों पर जो कुछ भी दिल में ख्याल आता नोट करके रख लेते .धीरे धीरे यही मोती एक एक करके धागे में पिरोते गए और मालाएं बननी शुरू हो गयीं . 

जिन्दगी अब  उस पड़ाव पर आ गयी  जहाँ  कन्धों  पर वजन डालना जरुरी हो जाता है . 1980 में शादी हो गयी तब महीने की तनख्वाह 1000/-  थी . दिन गुजरे महीने गुजरे तनख्वाह बढ़ती गयी लेकिन शायरी को इस से कोई सरोकार नहीं था, वो तो न रात देखती थी न दिन अवचेतन  से सीधे चेतन में कैसे  आ जाती थी अतुल को पता ही नहीं चलता था .जब भी वो अपने मयार को टटोलते तो पाते की काव्य रचने की अद्भुत क्षमता मौजूद थी . दोहे, गीत, ग़ज़ल, नज़्म, घनाक्षरी , फ़िल्मी गाने हर विधा में जम कर लिखते . कव्वाली , सूफी कलाम, यहाँ तक की मजाहिया किस्म की शायरी तक कर डाली . एक बार अतुल से इस का सीक्रेट जानने की कोशिश की कहने लगे कि ये सब ऊपर वाले की आमद है कि  मैं लिखने की मशीन बन चुका हूँ .

1984 में तकदीर ने जरा करवट बदली, अतुल दिल्ली से बम्बई आ गए . पहले कंस्ट्रक्शन में  कांट्रेक्टर बने, धीरे धीरे भवन निर्माता बन गए . 1986 में बिल्डर असोसिएशन  की स्थापना की, इसके सचिव और बाद में अध्यक्ष बने .

बम्बई आने के बाद शायरी की उड़ान और ऊँची हो गयी . मशहूर शायरों के संपर्क में आये . नशिस्त और मुशायरों में शिरकत करना शुरू किया .   खास बात यह कि पिछले दस साल से रोज कुछ न कुछ लिख रहे हैं . मुझे हैरत होती है कि  रोज दर रोज लिखना और लीक से अलग बात कहना कैसे संभव है, लेकिन उनके हाथ से छोटी छोटी पर्चियों, नोट बुक के पन्नों पर लिखी इबारतें इसकी गवाह हैं .उनका कहना है की खुदा रोज उनकी झोली में शायरी के कुछ फूल डाल  देता है, जरा बानगी देखिये  :

" मैं  रोज सुबह   मधु का प्याला होठों से लगा कर पीता हूँ
 रातों में फिर भर जाता है तुम देके गए मधुमास अमर" 

 अतुल 1000 रूपये मासिक की नौकरी से पिछले 25 सालों में 1000 करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट तक पहुँच चुके हैं , जो उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से अनाम से कसबे में जन्मे शख्स  के लिए बड़ी उपलब्धि  है .  लेकिन अतुल कहते हैं  'लेकिन इस सबसे ऊपर मेरी जो खरी कमाई   है जिस पर मैं गर्व कर सकता हूँ वह है मेरी शायरी . कभी कभी मुझे अपने ऊपर अचंभा होता है की ऐसा शख्स जिसका हिन्दू परिवार में हुआ हो, दूर दूर तक उर्दू से कोई वास्ता न हो उसकी कलम से रोशनी जादुई लब्जों के रूप में निकलती है , मुझे खुद प्रकृति की  इस अनूठी रहमत पर आनंद और आश्चर्य  होता है'.

मैंने खुद अपनी आँखों  से देखा है कि अतुल की लिखी पांडुलिपियाँ किलो नहीं क्विंटल के हिसाब से है घर में अब रखने की जगह नहीं बची तो आफिस का स्पेस घेर लिया है . ग़ज़ल, भजन के कई सी डी बन चुके  हैं, कई टी वी चैनलों पर काव्य पाठ किया है, लेकिन प्रिंट में कोई उल्लेखनीय संकलन नहीं है . दोस्त एक लम्बे समय से इसरार करते आ रहे हैं, बिजनेस से जरा वक्त निकला  है तो उन्होंने सोचा है कि अपने लिखे हुए को प्रकाशित करा कर समय की रेत  पर पद चिन्ह छोड़ जाएँ , प्रस्तुत संकलन इसकी शुरुआत भर है . 

कई लोग अतुल से पूछते हैं की आप बिल्डर भी है और शायर भी , इसमें कुछ विरोधाभास नहीं लगता तो वह हंस के कहते हैं :

" मैं  शायर हूँ पर बिल्डर जैसा दिखता हूँ 
मैं  ईंट पत्थरों  से कवितायेँ लिखता हूँ " 

अतुल हर विषय पर लिख रहे हैं, साम्प्रादायिक ताकतों के हमेशा खिलाफ रहे हैं, उन्हें राम और रहीम में कोई अंतर नजर नहीं आता है , उन्हें हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध , इसाई, सिख महज संप्रदाय लगते  हैं उनके हिसाब से यह सब हमारी आदतें हैं जीने का नजरिया है, धर्म इन सबसे कहीं ऊपर : मानवता का धर्म, प्रेम का धर्म, प्राणी मात्र का धर्म, यही हमें पशुओं से अलग करता है . उनका यह सोच कट्टर पंथियों को हजम नहीं होता है लेकिन अतुल के मन में बैठे शायर को इसकी परवाह नहीं है उनका कहना है : 

" दिन भर हों  भजन और सजदे भी वो सुबह रहे और शाम रहें 
अल्लाह कहें भगवान  कहें सब लेते तुम्हारा नाम रहें 
इंसान मकान बदलते हैं भगवान  कभी इतना तो करें 
 मंदिर में रहीम रहें जाकर मस्जिद में घनश्याम रहें" 
देश के किसी भी कोने में कोई अप्रिय घटना घटती है तो वह अतुल के कवि  मन को झंझोड़ देती है, आतंकवादियों के लिए उनकी इन पंक्तियों को लोगों ने बेहद  सराहा है :

"दिलों  में नफरतों के बीज बोना कैसा होता है 
जरा दहशतगरों बोलो कि रोना कैसा होता है हो 
तुम भी आदमी जा कर यह अपनी मान से यह पूछो 
बुढ़ापे में कभी बच्चों का खोना कैसा होता है " 

लेकिन साथ ही साथ अतुल ने रोमांटिक शायरी भी जम कर की है जिसकी झलक इस संग्रह में मिलेगी , उनकी शायरी में सारे इन्द्रधनुषी रंग मौजूद हैं, फूल हैं साथ में कांटे भी यह सब जिन्दगी की सचाई ओढ़े हुए :

"मेरे आँगन में पल कर बड़ा हो गया मेरे घर में ही रहता चमन देख लो 
मेरा पेशा गुलाबों की खेती का है मेरे पूरे बदन पर चुभन देख लो"

अतुल में लिखने की लगता है  प्यास सी समाई हुई  है, जो वक्त के साथ बढ़ती जा रही है :

"मैं  चलूँ तो चलता रहूँ सदा कभी ख़त्म मेरा सफ़र ना हो,
मैं  डरा हूँ बस इस बात से कहीं राह में तेरा घर न हो " 

खुदा, भगवान, गाड  से प्रार्थना है की अतुल भाई की कलम को और ताकत  दे, जब वो लिखें तो कागजों पर उनके हर्फ़ बिना किसी रोशनी के सुनहरे हो कर चमकें . 

                                                                                                                          - प्रदीप गुप्ता 

Related Posts :

  • dryer repurposingSo we've been without a dryer for a few months now (has both good and bad points) and we decided to … Read More...
  • friday the 13thUh oh!  School called at midday to tell me he had hurt his arm and needed someone to come and p… Read More...
  • 49/52A portrait of our children, once a week, every week, in 201410 - Peter Pan for the school book parad… Read More...
  • 44/52A portrait of our children, once a week, every week, in 2014Post Halloween lolly feast.  Unattr… Read More...
  • x race We did the X Race again this year (like last year) and it was an all blue affair.The littlest … Read More...

POPULAR POSTS

Blog Archive